Monday, June 7, 2010

सुख और दुःख ....

एक दिन यूँ ही ...चला जा रहा था मैं ..निश्छल भाव से .....अत्यंत छुब्ध ,अत्यंत निराश .....ना जाने क्यूँ ....
किन्तु एक मार्ग था शायद जो मुझे जाने का हेतुक लग रहा था ...आगे बढ़ने का ...जो मुझे विवश कर रहा था कि ओ प्राणी चल .....तो यही कारण था आगे जाने का ....परन्तु पता तो नहीं था कि मंजिल कहाँ है..

उसी मार्ग की कहानी है ...आगे बढ़ता गया मैं .बिना रुके .नैराश्य को अपना साथी बनाये हुए . ....मार्ग तो अत्यंत कठिन था. अतः ऐसे ही चलते चलते कदम अचानक ही रुक गए और विश्राम की मांग की .मैं बैठ गया .उसी नैराश्य भाव को साथ लिए हुए .उसी समय मुझे ऐसा लगा कि कोई है जो मुझे आवाज़ दे रहा है .इसका यकीन तो मुझे नहीं हुआ पर ध्यान से सुनी गयी बात को अधिक समय के लिए नहीं टाला जा सकता .पुनः उसी ध्वनि को सुनते ही मैं चौंक गया .ठिठक सा गया .कभी कभी या शायद हमेशा एक अविश्वश्नीय घटना जिसका आप कभी यकीन ना कर सकते हो और वो हो जाए तो मनुष्य सबसे पहले यह सोचता है कि यह गलत है पर पुनः वही घटना हो जाए तो डर जाता है ,चौंक जाता है ,घबरा जाता है .कुछ ऐसा ही हुआ था मेरे साथ उस समय .उसी ध्वनि ने मुझसे पूछा "हे प्राणी ,इस संसार से विरक्त ,अत्यंत निराश ,जीवन से विस्मृत ,तुम्हारे दुःख का कारण क्या है ?"

मैं ,उस समय जो खुद से ,अपनी ज़िन्दगी से ,औरों की ज़िन्दगी से हताश ,निराश जो चला जा रहा था ,ना जाने क्यूँ ऐसी परिस्थिति में भी मैंने उससे बात करना उचित समझा .जब मैंने उससे अपने दुःख का कारण बताया तो उसने कुछ अधिक तो नहीं कहा पर जो भी कहा मुझे बहुत सारगर्भित लगा .उसने मुझसे कहा कि जिस दुःख से परेशान होकर तुम परिस्थितियों से भाग रहे हो उसका हल भी तुम्हारे आस पास ही है .बस इतना ही कहा उसने।


उसकी इतनी सी बात को अपने मन के एक झरोखे में संजोकर पुनः उस स्थान से मैं चल पड़ा .रास्ते में मुझे एक स्थान मिला , जहाँ मुझे एक गुलाब का पेड़ दिखा .पहले तो मैं जाने लगा किन्तु ऐसा लगा कि उस गुलाब के पेड़ का एक छोटा सा फूल कुछ कहना चाहता है मुझसे .अतः मैं रुक गया और एक फूल विशेष को बहुत ध्यान से देखने लगा .उसे छूने की कोशिश की तो एक काँटा चुभ गया.फिर मैंने उसकी लाल पंखुड़ियों को देखा .वाह.कितने सुन्दर थे .पर वो कांटे उसकी शोभा बिगाड़ रहे थे .अत्यंत आकुलित होते हुए मैं उसे निहारता ही रह गया .पर वो हमारी तरह सजीव नहीं था कि अपने मन की व्यथा का वर्णन कर सके ।

पुनः मैं आगे चलने लगा .उस गुलाब के फूल के बारे में सोचते हुए .पुनः मार्ग में ,एक जंगल में मैंने देखा दो हिरन के जोड़ों को .अहा .कितना मनोरम दृश्य था वो .किन्तु फिर मैं यह सोचकर सिहर सा गया कि क्या इनकी ये ख़ुशी सर्वदा इसी भांति विद्यमान रहेगी या नहीं .परन्तु एक सिंह का ख्याल मन में आते ही उन जोड़ों पर तरस आ गया मुझे .बिना कुछ सोचे मैं उसी स्थान पर बैठ गया ।

अब मैंने बारी बारी सोचना शुरू किया .पहले वह गुलाब,जिसके स्पर्श मात्र से मैं खीझ सा गया था .फिर भी उसे निहारने से अपने आप को रोक ना सका. दुःख से घिरे हुए उसमें मैंने सुख का आधार खोज लिया था जो खुद सुख का आधार होते हुए भी दुखों की परिसीमा से घिरे हुआ था .फिर मैंने उन हिरन के जोड़ों के बारे में सोचा .अत्यंत सुखी होते हुए भी उन्हें यह कहाँ पता था कि दुःख उनके कितना निकट है ।


अब मैंने उस ध्वनि के बारे में सोचा जिसकी सारगर्भित बातें अब मुझे समझ में आ रही थी .उसने मुझे जीवन जीने की एक शैली के बारे में बताया .जहाँ सुख है उसके आस पास ही दुःख है और दुःख के बारे में भी पूरक विचार हैं .दोनों ही एक दुसरे की परिसीमाओं से बंधे हुए हैं .अब यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम कितना दुःख परिवर्तित कर सकते हैं सुख में .अब मैं निकल पड़ा उलटे रास्ते जहाँ से मैं नैराश्य भाव को साथ लिए चल पड़ा था .अत्यंत प्रसन्न ,सर्व सुख्युक्त जीवन व्यतीत करने.अंततोगत्वा मैंने उस आवाज़ को धन्यवाद देने की कोशिश की पर इसे मैं उचित नहीं समझा क्यूंकि मुझे ऐसा लगा कि वो मेरे अंतरात्मा की आवाज़ थी ...

Sunday, May 2, 2010